बदलते रिश्ते - एक कड़वा सच जो आपको सोचने पर मजबूर कर देगा। जी हाँ, यह सिर्फ मेरी नहीं बल्कि हम सब की है। और जहाँ तक मेरा ख्याल है, ऐसा सिर्फ भारत में ही होता है। क्या कभी आपने सोचा है कि आपके परिवार वाले भी आपके खिलाफ साज़िश कर सकते है। मैं दावे के साथ कह सकता हूँ के नहीं। पर यह सब सच है - एक कड़वा सच जो आपकी ज़िन्दगी बदल देगा और सोचने पर मज़बूर कर देगा कि क्या यही ज़िन्दगी है। मैं हर वख्त दूसरों के बारे में ही सोचता रहा और अपनी ज़िन्दगी बर्बाद कर ली। पर सब यही कहते हैं की तूने किया है। लोग दूसरों का दिमाग तो पढ़ लेते हैं पर मेरा दिल कोई नहीं पढ़ पाया। अब तो मेरा दिल बस यही कहता है कि :- पंछिओं को आसमान से गिरते देखा है, अपनों के हाथों से अपनों को गिराते देखा है। *-*-* लोग बेदर्द है जो अपने दिमाग से सोचते हैं, उम्र गुज़ार दी दिल से सोचते - सोचते, पर अफ़सोस, मेने अपने रिश्तों को फिर भी बदलते देखा है। *-*-* क्या ये ही ज़िन्दगी है, कि लोग एक पल में साथ छोड़ देते हैं, बीच सफर में अपने हाथ छोड़ देते हैं, ज़िंदगी का तो पता नहीं,
दोस्तो, आज मैं आपको एक अपनी लिखी हुई कविता से रूबरू करवाता हूँ। यह कविता मेने साल नवम्बर 14, 2000 में लिखी थी। उस दिन पंडित जवाहरलाल नेहरू का जन्म दिन था और संयोगवश दिपावली भी उस दिन थी। और उस रात मैं अपने घर की छत पर बैठ कर जगमगाती रौशनी का लुत्फ़ उठा रहा था कि मेरा मन कुछ उदास था उसदिन। अचानक मुझे यह कविता सूझी। मेरी कविता का शीर्षक है " रौशनी " जग मग - जग मग जुगनू जैसी। चाँद की हो रौशनी।। रंग - बिरंगे फूलोँ जैसी। तारों की हो रौशनी।। मन को भाए - सब को भाए। किन दीपों की हो रौशनी।। कभी तो हसाए - कभी तो रुलाए। जाने कैसी हो तुम रौशनी ।। अगर आप को यह कविता अच्छी लगी तो कृपया अपने विचार लिखें।